इन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ क्या है...  

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इन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ* क्या है
कू-ए-जानाँ* है, कि मक़तल* है, कि मयखाना है
आजकल सूरत-ए-बर्बादी-ए-याराँ क्या है 
-- फ़ैज़

एक अरसा हो गया फ़ैज़ की बज़्म-ए-शेर-ओ-सुख़न चरागाँ किये हुए... आज एक लम्बे वक्फ़े के बाद इधर का रुख करा तो सोचा ज़रा साफ़ सफ़ाई कर के चंद कंदील टाँग दूँ... खिड़की दरवाज़े ज़रा खोल दूँ कि ताज़ी हवा आये... कुछ फूल सजा दूँ... कुछ शमाएँ रौशन कर दूँ... कुल मिला कर बज़्म एक बार फिर सजाऊं और फ़ैज़ के दीवानों को एक बार फिर आवाज़ लगाऊँ कि आ जाओ... फ़ैज़ कि महफ़िल को एक बार फिर अपनी दाद और वाह-वाह से गुलज़ार कर दो...!

आज अकेली आ रही थी बिना किसी क़िस्से कहानी के, वो भी इतने लम्बे अरसे बाद तो टीना सानी जी का हाथ पकड़ कर उन्हें भी यहाँ ले आयी... एक ही बार देखा है उन्हें, फ़ैज़ कि जन्मशती के अवसर पर आयोजित एक कंसर्ट में... यकीन मानिये उनसे ज़्यादा नम्र इन्सान हमने आजतक नहीं देखा... आइये साथ मिलकर सुनते हैं उनकी आवाज़ में फ़ैज़ की एक दकनी ग़ज़ल उनके मजमुए शाम-ए-शहर-ए-याराँ से.

कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था

थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछते थे अहवाल* जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था

अब के तो ख़िज़ाँ* ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गये
जब मौसम-ए-गुल* हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था

थी यारों की बहुतात तो हम अग़यार* से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था

अब तो हाथ सुझाई न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था

मॉस्को, अक्टूबर, 1978



"फ़ैज़" इतने वो कब हमारे थे...  

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तेरा जमाल निगाहों में ले के उठा हूँ
निखर गई है फ़ज़ा तेरे पैरहन* की सी
नसीम तेरे शबिस्ताँ* से होके आई है
मेरी सहर में महक है तेरे बदन की सी
-- फ़ैज़

कभी कभी होता है ना कि कुछ कहने का दिल नहीं करता... आज ऐसा ही कुछ है हमारे साथ... वैसे भी फ़ैज़ के बारे में क्या और कितना कहा जाये... आइये आज की बज़्म में सिर्फ़ उनके लिखे को महसूस करते हैं और सुनते हैं "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से एक ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल आबिदा परवीन जी कि आवाज़ में...

हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न* तुम्हारे थे

रंग-ओ-ख़ुश्बू के, हुस्न-ओ-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे* थे

तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

जब वो लाल-ओ-गुहर* हिसाब किये
जो तेरे ग़म पे दिल ने वारे थे
मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्त-ए-फ़लक* में तारे थे

"फ़ैज़" इतने वो कब हमारे थे

१९७२



तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी, तेरे जाँ-निसार चले गये...  

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रफ़ीक-ए-राह थी मंज़िल हर इक तलाश के बाद
छुटा ये साथ तो रह की तलाश भी ना रही
मलूल था दिल-ए-आइना हर ख़राश के बाद
जो पाश-पाश हुआ इक ख़राश भी ना रही

-- फ़ैज़

एक लम्बे वक्फे के बाद आज फ़ैज़ की महफ़िल फिर सजाई है. और आज आपके लिये लायी हूँ फ़ैज़ पर प्रणय कृष्ण जी द्वारा लिखे गये एक लेख का छोटा सा अंश और साथ में "दस्त-ए-तह-ए-संग" से एक ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल.

रूमानियत और फ़ैज़ की शायरी : एक जिरह - प्रणय कृष्ण

"फ़ैज़" की शायरी अपने पाठकों और श्रोताओं में पहले से मौजूद कुछ जज़्बातों, सपनों, यादों और रिश्तों को जगा देती है. फ़ैज़ की काव्यभाषा मन्त्रों की तरह जनसमुदाय की भावनाओं और अनुभवों का आह्वाहन करती है, भूले हुए एहसासों को जगाती है, दिल में गहरे दफ़्न संवेदनाओं को पुकारती है और उन्हें एक ऐसी काव्यात्मक संरचना प्रदान करती है कि लोगों को उसमें अपने जीवन का मायने-मतलब और मूल्य समझ में आता है. उनकी पूरी शायरी अवाम के साथ एक ऐसा संवाद है जो अवाम की चेतना के दबा दिये गए हिस्सों से रु-ब-रु है. कोई भी फ़ैज़ का पैसिव श्रोता नहीं हो सकता. उन्हें सुनने वाली अवाम, उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनकी शायरी में मानी, अर्थ भरता है. ये वो चीज़ है जो फ़ैज़ की शायरी के अवामी और जम्हूरी चरित्र को समझने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है. उनकी शायरी एक चुम्बक है जिससे खिंचकर न जाने कितने अनुभव जुड़ जाते हैं. जो बात पैदा होती है, वह है एक ऐसी शायरी जो हमें आमंत्रित करती है कि हम सब उसमें अपने अनुभव मिला दें. फ़ैज़ का पाठक या श्रोता यह एहसास किये बगैर नहीं रह सकता कि वो उनकी शायरी में शामिल है. अवाम के दिलों में ग़ज़ल के साथ रिश्ता, उसके प्रतीक विधान और माहौल के साथ बाबस्तगी पारंपरिक तौर पर गहरी थी. फ़ैज़ के लिये ये एक महत्वपूर्ण बात थी और उन्होंने ग़ज़ल के ढाँचे को लेकर एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में एहतेजाज कि महान शायरी को अंजाम दिया. जदीदियत के महान स्तम्भ नून मीम राशिद अगर इस बात को नहीं समझ सके तो कोई ख़ास आश्चर्य की बात नहीं. क्यूँकि साहित्य का वह कोई भी विमर्श जो रूप को ही वस्तु का दर्जा देता है "फ़ैज़" के साथ न्याय नहीं कर सकता. हिंदी में आज भी गीत और गीतकार साहित्य की दुनिया में दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. लेकिन लोकप्रिय प्रतीरोध के लिये हिंदी में दुष्यंत कुमार, गोरख पाण्डेय वगैरह ने अगर ग़ज़ल को फिर से मुफीद पाया तो इसके पीछे फ़ैज़ जैसों के कारनामों की ही विरासत थी. हिंदी में आज भी कुछ लोग समझते हैं कि ताल, छंद, तुक, लय वगैरह ऐसे काव्य उपकरण हैं, जिनका यथार्थ के लिये पुनरुद्धार संभव नहीं है. इसे जदीदियत का ही वर्चस्व समझना चाहिये, जो रूप के स्तर पर मनोग्रस्त है.

प्रतीक से इतर, ख़ालिस इश्क़ और हुस्न की बात करते हुए "फ़ैज़" ने कहीं भी आत्मग्रस्त मानसिकता का परिचय नहीं दिया, जो कि औसत पारंपरिक ग़ज़ल और रूमानी शायरी का समान तत्व है. "फ़ैज़" के रूप में एक ऐसा शायर हमारे सामने है, जो प्रिय पात्र पर किसी अधिकार कामना से संचालित नहीं है. जबकि यह अधिकार कामना ही है जो रोमैंटिक एगोनी का स्रोत है. "फ़ैज़" आमतौर पर प्रियपात्र को महज़ निमित्त मानकर सिर्फ़ प्रेमी की प्रतिक्रियाओं के तंग घेरे में नहीं विचरते. वे तो प्रियपात्र की तस्वीर ऐसी खड़ी करते हैं कि वह हर किसी का प्रियपात्र हो जाये और ऐसा कर के वे सूफ़ियों की याद दिलाते हैं. ये भावनाओं की दुनिया में लोकतंत्र की इन्तेहा है. इसलिए "रकीब से" जैसी नज़्म वे ही लिख सकते थे. जहाँ रूमानियत में महबूब की जगह आशिक़ की अपनी ही दुनिया प्रधान होती है वहीं फ़ैज़ के यहाँ महबूब का असर प्रधानता पाता है -

वह तो वह है, तुम्हें हो जायेगी उल्फ़त मुझसे
इक नज़र तुम मेरा महबूब-ए-नज़र तो देखो

महबूब को, उसके वस्तुगत व्यक्तित्व को इतनी तरजीह भला पारंपरिक ग़ज़ल में कैसे मिल सकती थी ! जब "फ़ैज़" महबूब के नक्श उकेरते हैं तो जहीद आलोचक को उसमें सिर्फ़ "ऐन्द्रिय इफेक्ट" नज़र आता है. लेकिन संवेदना का बदलाव नहीं, जो एक साथ सुफ़ियाना और आधुनिक दोनों है. फ़ैज़ जब ये नक्श उभारते हैं तो वह रीतिकालीन "नख-शिख" उपभोग नहीं होता. बल्कि ज़िन्दगी के तमाम तजुर्बों से उलझते हुए, फैलते हुए दायरे का असर रखता है -
दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहाँ लरजाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये, तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में, दूरी के खस-ओ-खाक़ तले
ख़िल रहे हैं तेरी पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं कुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़क पार, चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
(दस्त-ए-सबा से)

इस नज़्म में दूरी ही सब कुछ कहती है. हुस्न का असर दूरी के चलते ही सब पर यकसां पड़ता है. यहाँ महबूब दूर होने के बावजूद इस क़दर छाया हुआ है कि उसे चाहने वाले का ईगो कोई महत्त्व नहीं रखता. वो तो ख़ुद निमित्त है. सारी क़ायनात के सामने उस जमाल को लाने का. यह तरीका रूमानियत से ठीक उलट काव्य भंगिमा है.

साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक

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आइये अब पढ़ते हैं "दस्त-ए-तह-ए-संग" से एक बेहतरीन ग़ज़ल और फिर उसे सुनते हैं दो अलहदा आवाज़ों में दो अलग अंदाज़ लिये हुए.
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी, तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरी रह में करते थे सर तलब, सरे-रहगुज़ार चले गये

तेरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गयी
मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठकर मेरे ग़मगुसार चले गये

न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म, न हिकायतें न शिकायतें
तेरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख्तियार चले गये

ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गयी
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गये

न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफा, ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें ज़ुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गये
जुलाई, 1959

पहले आबिदा परवीन जी की आवाज़ में -


और अब शौक़त अली साहब के अंदाज़ में -

इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है...  

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और उनकी लेखनी उनके जमाने से कहीं और अधिक आज प्रासांगिक है। उनका व्यक्तित्व, चिंतन, संघषर्शीलता और शायरी को पसंद करने वाले उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी समान संख्या में हैं। उनकी जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष -

न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई


एक शायर है जो कलम को पन्नों पर टिकाता है तो प्रकृति के, प्रेम के, रूमानियत के नक्श उतरते चले जाते हैं। ऐसे लगता है कि ये पेड़, रात, हवाएं, मंदर और मंजर सब के सब एकसाथ बोल उठेंगे। आपके साथ चल पड़ेंगे, आप सोएंगे तो ख़्वाबों में थपकियां देंगे, आप जागेंगे तो आपको एहसास-ए-जिंदगी बक्शेंगे। मुनीज़ा की सालगिरह आपकी अपनी बेटी की सालगिरह बन जाएगी। दरख़्त मंदिरों की शक्ल ले लेंगे। आसमां की नदिया ठहर जाएगी और आपका मेहबूब आपसे पहली-सी मोहब्बत मांग बैठेगा।

एक शायर है जो कलम को पन्नों की छाती पर टिकाता है तो रौशनाई खून में तब्दील हो जाती है। अफ़्सुर्दगी और एहसास-ए-हक़ीक़त इंकलाब की लौ में आंखों की चमक बन जाती है, हंसीं खेतों का जोबन फट जाता है और उनमें क्रांति की कोपलें आसमान को चीरकर आगे निकल जाने के लिए पैदा होने लगती है। कलम जैसे-जैसे पन्नों को चीरती हुई आगे बढ़ती है, सरकारों और व्यवस्था का बुर्क़ा चिरता चला जाता है, सच्चाई का अक्स सामने आ जाता है, बगुलों और भेड़ियों की शक्लें साफ़ समझ आने लगती हैं। इनकी चालाकियां, इनकी साज़िशें और इनकी तैयारी बेपर्दा हो जाती है। हम सच भी जान लेते हैं और सच से लड़ने का हौसला भी हासिल करते हैं। रोज की दर्दनाक बेवक्त मौतों के खिलाफ रगों में पानी का रंग सुर्ख़ लाल होने लगता है और हम इंकलाब की तैयारी करने लगते हैं।

इन दोनों ही शायरों का एक नाम है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

20वीं सदी का वो महान उर्दू शायर जिसने सरकारी तमगों और पुरस्कारों के लिए नहीं, जिसने शराब की चाशनी में डूबती-नाचती महबूबाओं के लिए नहीं, जिसने मज़ारों और बेवफ़ाईयों के लिए नहीं बल्कि अपने इंसान होने के एहसास, समाज और देश के लिए, एक सही और बराबरी की व्यवस्था वाले लोकतंत्र के लिए इंकलाब को अपने कलम की स्याही बनाया और ज़ुल्म-ओ-सितम में जी रहे लोगों को वो दिया जो बंदूकों और तोपखानों से बढ़कर था। फ़ैज़ की कविताओं में जितना जिंदा वो सच है जिसमें हम जी रहे हैं, उतना ही जिंदा वो हौसला है जिसकी बदौलत आदम-ओ-हव्वा की औलादें अपने वर्तमान को बदल सकती हैं। वो कहते हैं-

बोल के लब आजाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल के जां अब तक तेरी है

या फिर-


हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रक़म करते रहेंगे

इस तैयारी के लिए लोगों का आह्वान करते हुए फ़ैज़ केवल हाथों में मशालें नहीं पकड़ाते बल्कि साथ ही यह विश्वास भी दिलाते हैं कि जीत आखिर सच की और सच के लिए लड़ने वालों की ही होगी। वो कहते हैं-

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।

शोषण, दमन और बंदरबांट को जिस खूबसूरती से फ़ैज़ नंगा करके लोगों के सामने लाते हैं, वो बेमिसाल है। पर जब फ़ैज़ इश्क़ भी करते हैं तो लगता है कि न जाने कोई हाड़-मांस की महबूबा है या इंकलाब का परचम थामे हुए क्रांति खड़ी है जिसके लिए वो दीवाने हुए जाते हैं। और इसीलिए जब रूमानियत की या इंकलाब की कविताओं की बात अलग-अलग उठती है तो फ़ैज़ तराजू के दोनों ओर बराबर वज़नदार मालूम देते हैं। कोई भी इंकलाबी कवि या शायर रूमानी भी हो सकता है या होता है, ऐसे जुमलों का सबसे सटीक और मज़बूत उदाहरण फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शताब्दी में यह खासियत उनसे पहले मजाज़ लखनवी में ही दिखती है, बाकी इस स्तर की किसी और उर्दू शायर में नहीं और इसीलिए 20वीं सदी में फ़ैज़ सबसे सशक्त उर्दू शायर के तौर पर उभरकर सामने आते हैं।

फ़ैज़ केवल पाकिस्तान के नहीं थे। जब वो पैदा हुए तो भारत और पाकिस्तान एक ही थे। कम लोगों को मालूम है कि लाहौर में सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह और साथियों की पिस्तौल से चली गोली की आवाज सुनने वालों और फिर भागते क्रांतिकारियों को देखने वालों में से एक फ़ैज़ भी थे, अपने हॉस्टल की छत पर टहलते हुए अचानक ही इस ऐतिहासिक पल के वे साक्षी बने थे। पाकिस्तान बना पर भगत सिंह फ़ैज़ के दिल में कायम रहे. बिना किसी परवाह के फ़ैज़ के लिए धरती पर सबसे ज्यादा पसंदीदा और प्रभावित करनेवाला नाम भगत सिंह बने रहे। और फिर दक्षिण एशिया क्या, दुनिया के तमाम कोनों में फ़ैज़ कभी मर्ज़ी से, कभी मजबूरी में पहुंचे। अपने संघर्ष के तरानों को दूसरों के लिए लिखते हुए उन्होंने दुनियाभर में शोषण और अत्याचार के खिलाफ़ अपनी कविताओं को बुलंद किया।

भविष्य का सपना दिखाती सत्ता और लोगों की साज़िशों ने भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्थाओं की पोटली पर विकास की पर्ची चस्पा कर दी है ताकि आंखमिचौली के खेल में हमारे लुट जाने का हमें एहसास तक न होने पाए और जो हो तो तबतक सबकुछ मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से निकल चुका हो। इसे फ़ैज़ बखूबी पहचानते थे और इसीलिए आज जब हम देखते हैं कि सरकारों में किस कदर सेंध लगाकर शोषक पैठ बना चुका है, जब हम लोकतंत्र के नाम पर दुनियाभर के तमाम देशों में एक खोखली और शोषणकारी व्यवस्था देखते हैं, जब हम अमरीका और यूरोप की करतूतों और उन पर लिपटे सभ्य होने के सफेद लिहाफों को देखते हैं, जब हम उन झूठे सपनों की ओर देखते हैं जिसमें विकास की चमकती दमकती, गगनचुंबी तिलिस्मी तस्वीर पूरी दुनिया को अपने मकड़जाल में कसती जा रही है और इन सबके खिलाफ जब हम जल, जंगल, जमीन, मानवाधिकारों और बराबरी पर आधारित व्यवस्था की लड़ाइयों के मोर्चे दुनियाभर में देखते हैं, फ़ैज़ और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।

फ़ैज़ तब तक साहित्य की क्यारियों में महकते रहेंगे, उनकी कविताओं की किताबें, डायरी के पन्ने और कतरने तब तक ज़िन्दा और प्रासंगिक बने रहेंगे जब तक कि पूरी दुनिया में किसी एक भी इंसान के साथ अन्याय और शोषण होता रहेगा। वजह यह है कि फ़ैज़ भी कबीर की तरह दूर तक देख रहे हैं, उस हकीकत को जो हम सब के इंसान होने की सच्चाई पर हमें फिर से सोचने को मजबूर करती है। यही वजह है कि आज जब दुनिया में अलग-अलग देशों में एक जैसी तकलीफों के लिए इंकलाब करते, विद्रोह करते लोग नजर आते हैं, फ़ैज़ साथ खड़े मिलते हैं। चौराहों पर, तख्तियों पर, पोस्टरों और कमीजों पर, हर जगह एक साहस देते और रास्ता दिखाते साथी की तरह।

-- पाणिनि आनंद

साभार : राष्ट्रीय सहारा, रविवारीय परिशिष्ट, २७ मार्च २०११

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फ़ैज़ के बारे में इतना अच्छा लेख पढ़ने के बाद आइये उनकी एक ख़ूबसूरत सी नज़्म भी पढ़ते हैं, "शाम" जो उनके संग्रह "दस्त-ए-तह-ए-संग" से ली गई है.


इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर एक दर का दम-ए-आख़िर है
आस्मां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सर-निगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से

इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा

आस्मां आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई साँवली घूँघट खोले

"फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है...  

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ना पूछ जब से तेरा इंतज़ार कितना है
कि जिन दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं
तेरा ही अक्स है उन अजनबी बहारों में
जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार * नहीं

-- फ़ैज़


एक लम्बे वक्फ़े के बाद आज फिर फ़ैज़ की महफ़िल सजाई तो सोचा आज ऐसा क्या पेश करूँ आप सब के सामने जो अब तक पेश नहीं करा. फिर ख़्याल आया जैसा कि कहा जाता है हर कामयाब शख्स और उसकी बुलंद शख्सियत के पीछे एक महिला का हाथ होता है. फ़ैज़ की कामयाबी और उनके तमाम मुश्किल हालातों में जो एक अडिग स्तम्भ की तरह उनके साथ थीं वो महिला उनकी हमसफ़र उनकी पत्नी एलिस फ़ैज़ थीं. तो आइये आज आपको मिलवाते हैं एलिस फ़ैज़ से...

बीबी गुल (फ़ैज़ की बहन) बताती हैं - "फ़ैज़ के लिये बहुत से रिश्ते आये थे मगर जहाँ वालिदा (माँ) और बहनें चाहती थीं वहाँ फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरकी (पूर्वी) रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़."

एलिस के बारे में वो आगे बताती है - "उनकी बहुत सादा तबियत है, बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया और ख़ानदान में इस तरह घुल मिल गईं जैसे इसी घर की लड़की हैं, वही लिबास इख्तियार किया जो हम सब पहनते थे. हाँ सास और बहू का रिश्ता प्रेम और आदर वाला रहा, सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की."

हाल ही में एक पुराना साक्षात्कार पढ़ा आजकल पत्रिका के फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक में जिसमें "फ़ैज़" से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को अमृता प्रीतम से बयां कर रही हैं एलिस फ़ैज़. आप भी पढ़िये -

अमृता : एलिस ! क्या फ़ैज़ साहब से तुम्हारी पहली मुलाक़ात तुम्हारे ही देश इंग्लिस्तान (इंग्लैंड) में हुई थी ?
एलिस : नहीं ! मेरी बहन हिन्दुस्तान ब्याही थी डॉक्टर तासीर के साथ. वे दोनों लंदन में मिले थे, 1938 में मैं अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आई थी.

तो हिन्दुस्तान को तुमने "फ़ैज़" के रूप में देखा ?
हाँ, अमृतसर में मिली थी. अमृतसर हिन्दुस्तान बन गया और हिन्दुस्तान "फ़ैज़".

तुम उर्दू ज़ुबान नहीं जानती थीं. फिर "फ़ैज़" की शायरी से इश्क़ कैसे हुआ ?
अमृता ! सच्ची बात तो यह है कि मैं आज तक "फ़ैज़" की शायरी की गहराई को नहीं जान सकी. ज़रा सी ज़बान को समझ लेना और बात है, लेकिन पूरी तहज़ीब को जानना और बात है...

तब "फ़ैज़" शायर को नहीं, "फ़ैज़" एक शख्सियत से प्यार किया था ?
हाँ, वैसे तो शायरी शख्सियत का एक हिस्सा होती है, क्यूँकि एक शायर के साथ ज़िन्दगी बसर करनी होती है, इसलिए भी उसको बहुत कुछ जानना होता है, और मैंने उसे जाना.

मिलने के कितने अरसे बाद शादी की मंज़िल आई ?
तकरीबन दो साल बाद और यह इंतज़ार इसलिए था कि फ़ैज़ के वालिदैन से मंज़ूरी चाहिये थी, क्यूँकि एक ख़ुशगवार माहौल के बग़ैर हम शादी नहीं कर सकते थे...

शादी की रस्म कहाँ अदा की गईं ?
कश्मीर में. महाराजा कश्मीर ने अपना गर्मियों का महल हमें निकाह की रस्म के लिये दिया था और शेख़ अब्दुल्लाह ने निकाह की रस्म अदा की थी.

क्या बारात लाहौर से आई थी ?
हाँ, तीन आदमियों की बारात थी. एक "फ़ैज़", दूसरे उनके बड़े भाई और तीसरे उनके दोस्त नईम... जब तीनों आ गए, तो मैंने फ़ैज़ साहब से पहली बात पूछी... "ब्याह की अंगूठी ले कर आए हो कि नहीं?" "फ़ैज़" ने कहा - "अंगूठी भी लाया हूँ, साड़ी भी."
मैं हैरान हो गई कि अंगूठी का साइज़ "फ़ैज़" ने कहाँ से लिया है. पूछने पर कहने लगे - "मैं अपने साइज़ का ले आया था."
"फ़ैज़" जान गये होंगे कि दिल मिल जाये तो उँगलियाँ भी ज़रूर मिल जाती है.

अच्छा, एलिस ! यह बताओ, निकाह के वक़्त मुशायरा भी हुआ था ?
हाँ, हुआ था. पहले शेख़ अब्दुल्लाह और उनकी बीवी के साथ खाना खाया. फिर मुशायरा हुआ. मजाज़ और जोश मलीहाबादी भी थे.

"फ़ैज़" के रिश्तेदारों से कब मुलाक़ात हुई ?
कश्मीर में तीन दिन ठहरकर हम लाहौर आ गये. वहाँ दावत-ए-वलीमा (विवाह-भोज) की गई.

सास की बुज़ुर्गाना दुआएं कैसे लीं ?
सिर झुकाकर, घूँघट निकल कर...

ईमान से ! सच ! घूँघट उठाने की रस्म भी हुई थी ?
हाँ, अमृता ! चाँदी के रुपयों की सलामी मिली थी.

सास साहिबा ने तुम्हारे नाम नहीं तब्दील किया ?
किया था और उन्होंने मेरा नाम कुलसूम रखा था, लेकिन मुझे पसंद नहीं आया.

उर्दू ज़बान कब सीखी ?
घर में "फ़ैज़" के भतीजे से. मैंने उन्हें अंग्रेज़ी सिखाई और उनसे उर्दू सीखी.

उस वक़्त तक फ़ैज़ का पहला मजमुआ (काव्य-संकलन) नक्श-ए-फ़रियादी छप चुका था ?
हाँ ! शायद एक साल पहले ही छपा था.

"फ़ैज़" ने अपने पहले इश्क़ कि दास्ताँ सुनाई थी, जिसके बारे में नक्श-ए-फ़रियादी में नज़्में लिखी थीं ?
हाँ, अमृता, वह भी और उसके बाद की दोस्तियाँ भी, लेकिन मेरी ज़िन्दगी पर कुछ भी असर-अंदाज़ नहीं होता. "फ़ैज़" एक चट्टान हैं अपने-आप में. "फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है - काग़ज़ और कलम के साथ.

यह सच है. जिसकी वफ़ा अपने साथ हो, अपने किरदार के साथ हो ,अपनी तख्लीक (सृजन) के साथ हो. उस जैसा वफ़ादार कौन हो सकता है ?
तैंतीस बरस गुज़र गये हमारी शादी को.

पूरब और पश्चिम का यह मिलाप कैसा रहा ?
यह ज़रूर कह सकती हूँ कि दो मुख्तलिफ़, इलहदा-इलहदा सर-ज़मीनों के मर्द और औरत जब शादी करते हैं, तो मेरा ख़्याल है, मर्द के लिये औरत के देश में रहना आसान नहीं, लेकिन औरत अपने मर्द के देश में रह सकती है. नई धरती, नये माहौल को अपनाने की उसमें ताकत होती है. मुख्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों की शादी आसान बात नहीं.

तुम्हारे दो बच्चे हैं ?
दो बेटियां सलीमा और मुनीज़ा. सलीमा चित्रकार हैं और मुनीज़ा टी. वी. प्रोड्यूसर ! दोनों ने दो पंजाबी भाइयों के साथ शादी की है. इसलिए इकट्ठी रहती हैं अपनी सास के साथ.

एलिस ! तुमने "फ़ैज़" की नज़्मों का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया होगा ?
नहीं ! और लोगों ने किये हैं. तकरीबन पाँच साल पहले यूनेस्को की तरफ़ से एक तर्जुमा छपा था.

फ़ैज़ साहब को लेनिन पुरस्कार मिला था ?
1962 में. "फ़ैज़" को हार्ट अटैक हुआ था. वह कुछ संभल चुके थे, लेकिन अभी बिस्तर पर थे, जब पाकिस्तान टाइम्स से फ़ोन आया था.

यह ख़बर सुनकर फ़ैज़ साहब के पहले अल्फ़ाज़ (शब्द) क्या थे ?
वह चुप हो गये थे. शायद दिल भर आया था.

लोगों का क्या रवैया था ?
यह कि "फ़ैज़" को यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिये, लेकिन अयूब खां का तार आया कि वह प्राइज़ ले सकते हैं. इसी तरह के और तार भी मौसूल (प्राप्त) हुए. फिर दोस्त मुबारकबाद देने आ गये. फिर सवाल आया कि इस हालत में "फ़ैज़" मॉस्को का सफ़र कैसे कर सकते हैं ? डॉक्टर ने हवाई जहाज़ से सफ़र करना मना किया हुआ था. इसलिए बेटी को साथ लेकर "फ़ैज़" ने गाड़ी से लाहौर से कराची तक का सफ़र किया. फिर समुद्री जहाज़ से नेपेल्ज़ तक और फिर नेपेल्ज़ से गाड़ी के ज़रिये मॉस्को तक.

एलिस ! आपने कभी "फ़ैज़" की बायोग्राफी लिखने की सोची है ?
मैं तो नहीं, अलबत्ता कराची में ज़फर-उल-हसन लिख रहे हैं, लेकिन सोचती हूँ, "फ़ैज़" को ख़ुद लिखना चाहिये. एक और काम अधूरा पड़ा है. "फ़ैज़" और सूफ़ी तबस्सुम मिल कर फ़ारसी शायरी का उर्दू तर्जुमा कर रहे थे. सूफ़ी तबस्सुम का इंतक़ाल हो गया, तो "फ़ैज़" बहुत उदास हो गये... यह काम भी करने वाला है और वह काम भी. दोनों काम ज़रूरी हैं.

हाँ, एलिस, और दोनों से बड़ा ज़रूरी काम "फ़ैज़" की ज़िन्दगी को बचाने का है.
हाँ, अल्लाह उनकी हिफाज़त करे.....

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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
उर्दू से अनुवाद : हरपाल कौर
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फ़ैज़ की महफ़िल बिना उनकी ग़ज़लों या नज़्मों के कहाँ पूरी हो सकती है भला, तो आज आप सब के लिये "नक्श-ए-फ़रियादी" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल ले कर आये हैं, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है कविता कृष्णमूर्ति जी ने. आप भी सुनिये और आनंद लीजिये.


राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया

और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया

वो मेरे हो के भी मेरे ना हुए
उनको अपना बना के देख लिया

आज उनकी नज़र में कुछ हमने
सबकी नज़रें बचा के देख लिया

आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा, न जा के देख लिया

'फ़ैज़', तक़मील-ए-ग़म * भी हो ना सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया



आज तुम याद बेहिसाब आये...  

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यादों के ख़ाशाक * में जागे
शौक़ के अंगारों का जादू
शायद पल-भर को लौट आये
उम्र-ए-गुज़िश्ता *, वस्ल-ए-मन-ओ-तू*
-- फ़ैज़


फ़ैज़ के चाहने वालों के लिये आज का दिन बड़ा ख़ास है. सदी का ये शायर आज पूरे सौ साल का हो गया. पूरी दुनिया आज फ़ैज़ की जन्मशती मना रही है और तह-ए-दिल से सदी के इस सबसे सशक्त शायर को अपनी श्रद्धांजलि दे रही है. कहते हैं कला कि कोई सीमा नहीं होती. फ़ैज़ और उनकी शायरी के प्रति लोगों का प्यार इसे पूर्णतयः सही साबित करता आया है हमेशा से ही. फ़ैज़ के चाहने वाले सिर्फ़ भारत और पाकिस्तान में ही नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया में मौजूद हैं. समूचे विश्व के संदर्भ में देखा जाये तो फ़ैज़ के लेखन को वही इज्ज़त और मुकाम हासिल हैं जो शेक्सपियर, टॉल्सटॉय या टैगोर को हासिल है.

आज से ठीक सौ साल पहले १३ फरवरी १९११ को फ़ैज़ ने सियालकोट के कस्बे काला क़ादिर में जन्म लिया था. काला और क़ादिर नाम के दो भाइयों ने इस कस्बे को बसाया था पर आज यहाँ के रहने वालों ने "फ़ैज़" के नाम पर इसका नाम फ़ैज़ नगर रख दिया है. है कोई और कवि फ़ैज़ के सिवा जिसे आवाम का इतना प्यार मिला हो.

फ़ैज़ की शायरी शब्दों के संगीत को साकार कर देती है. फ़ैज़ के लेखन को इस उपमहाद्वीप के तमाम नामी-गिरामी गायक और गायिकाओं ने अपूर्व सौंदर्य के साथ गाया है. बेग़म अख्तर, नूरजहाँ, मेहदी हसन, इकबाल बानों, फरीदा ख़ानम, टीना सानी, नय्यारा नूर आदि ने फ़ैज़ की शायरी को बड़े ही बेहतरीन तरीके से गाया और प्रस्तुत किया है. ग़ालिब जैसे महान शायर को छोड़ कर बीसवीं सदी के किसी भी और शायर को इतनी बड़ी प्रतिभाएं इतनी बड़ी संख्या में नहीं मिलीं.

कवि, पत्रकार, अनुवादक, फिल्मकार, प्रसारणकर्ता, मार्क्सवादी कार्यकर्ता और लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित "फ़ैज़" अपने जीवनकाल में ही एक इतिहास बन चुक थे. एक बार भारत में "फ़ैज़" कि एक यात्रा के दुरान फ़िराक गोरखपुरी ने कहा था - "फ़ैज़ के समय में भारतवासी कहलाना कितने सौभाग्य की बात थी." यह एक दुर्लभ श्रद्धांजलि है जो एक महान शायर ने दूसरे महान शायर को दी थी. "फ़ैज़" हमारे मध्य हैं और हमेशा रहेंगे.

आज आपने लिये फ़ैज़ की एक बेहद मशहूर ग़ज़ल "आये कुछ अब्र कुछ शराब आये" ले कर आयी हूँ, जिसे अपनी मखमली आवाज़ से नवाज़ा है सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक मेहदी हसन साहब ने. ये ग़ज़ल फ़ैज़ के दूसरे मजमुए "दस्त-ए-सबा" से ली गई है. तो आइये एक बार फिर सराबोर होते हैं फ़ैज़ कि शायरी के नशे में और जश्न मनाते हैं आज के दिन का. फ़ैज़ के सभी मुरीदों को आज का दिन बहुत बहुत मुबारक़ हो.

आए कुछ अब्र, कुछ शराब आये
उस के बाद आए जो अज़ाब * आये

बाम-ए-मीना * से माहताब * उतरे
दस्त-ए-साक़ी * में आफ़ताब * आये

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आये

उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा * के बाब * आये

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आये

न गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इन्क़लाब आये

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानमाँ-ख़राब * आये

इस तरह अपनी ख़ामोशी गूँजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये

'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आये



फ़ैज़ की शायरी हमें ख़ुशी भी देती है, हैरानी भी...  

Posted by richa in


फ़ैज़ जन्मशती के अवसर पर प्रसिद्ध शायर शहरयार से प्रेमकुमार द्वारा की गई बातचीत की एक बानगी -

"वो लोग बहुत ख़ुशकिस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या जो काम से आशिक़ी करते थे." चेहरे पर एकदम अलग-सी ख़ुशी और तृप्ति. होंठों पर सुनाते जाने की बेचैन, उतावली सी एक चाहत - "हम जीते जी मसरूफ़ रहे कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया." कई बार दोहराया है इन पंक्तियों को. कुछ इस तरह जैसे आगे का हिस्सा याद ना आ रहा हो. पास रखी भारी-भरकम सी एक किताब उठाकर उसके पन्नों को उलटा-पलटा जा रहा है - "काम इश्क़ के आड़े आता रहा और इश्क़ से काम उलझता रहा. फिर आख़िर तंग आकर हमने दोनों को अधूरा छोड़ दिया." आँखों में दाद देती-सी दिपदिपाती एक चमक ! मुझपर हुए असर को देखने-जानने को आतुर-प्रतीक्षित-सी उनकी निगाहें. आज के उनके इस सुनाने के आवेश-उल्लास ने मुझे चौंकाया. इस जोश और जज़्बे के साथ तो शहरयार साहब अपने क़रीबियों से एकांत और फ़ुर्सत में भी अपनी ताज़ी-से-ताज़ी, अच्छी-से-अच्छी रचना को सुनने के लिये प्रायः नहीं कहते. कभी घर पर फ़ोन पर सुनाने का मन भी हुआ तो बेहद शान्त, शीतल, सहज अंदाज़ में.

कुछ भी पसंद आने की कोई ना कोई ख़ास वजह तो होती ही है न ?

- "देखिये - हम जिस ज़माने में जी रहे हैं वो इश्क़ करने को कोई काम नहीं समझता. आप शायरी करते हैं तो हर आदमी पूछता है कि आप काम क्या करते हैं. गोया शायरी करना कोई काम ही नहीं है. हाँ - ऐसे ही कोई बेकार चीज़ है वो जिसका जीने से ताल्लुक नहीं या शायरी जीने का ज़रिया ही नहीं हो सकती. इस सवाल पर हमारी कल्चर्ड सोसाइटी कभी ग़ौर नहीं करती. आप पेंटर से, टेबल या सारंगी वाले से ये नहीं पूछते - पर राइटर से हमेशा ये सवाल किया जाता है कि आप काम क्या करते हैं. पता नहीं हमारे समाज में यह पूछना कब से चला आ रहा है. कोई ग़ौर नहीं करता कि ये कितना एब्सर्ड सवाल है. आप देखिये कि नक्क़ाद से नहीं पूछेंगे कि आप क्या काम करते हैं पर एक क्रिएटिव राइटर से हरेक यही सवाल करता है. जी - हर कोई - चाहे उसका बाप हो या बेटा हो !"

यह तो है - पर मैं इस नज़्म की... ?

मेरा इतना भी बोलना जैसे उन्हें खटका था. झांई-सी मरती पल-दो-पल की एक रुकावट आयी. उनकी निगाह ने मेरी आँखों में झाँकते-से जैसे कुछ जांचा-परखा. और अगले ही पल तक वो एक अध्यापक हो गये थे - "जी मैं इसी नज़्म के हवाले से बात कर रहा हूँ. "फैज़" की ये नज़्म - कि इश्क़ भी एक काम है - और यही नहीं कि इश्क़ अपोज़िट सेक्स से ही हो ! किसी भी चीज़ को हासिल करने या उसके हुस्न, खूबसूरती में आदमी का इतना खो जाना कि उसे सुध-बुध न रहे - दीवानों-पागलों की तरह का आदमी का चाहना- इश्क़ है. यह किसी आइडियल से, औरत, मुल्क़ या राइटर से - किसी से भी हो सकता है. जिसको पाने के लिये आदमी काम को भी फायदे नुक्सान को सोचकर न करे - अपनी पसंद का है इसलिए इसलिए पूरा दिल लगाकर करे उसे. आप किसी के सामने अकाउंटबल हों या न हों - अपने सामने ज़रूर हों. अपने सामने अकाउंटबल तब होता है इन्सान जब अपने कॉन्शस को फेस करता है. फेस करने के दौरान जब वह पूछता है कि मुझे जिस काम पर मुक़र्रर किया गया है - टीचर, सैनिक, सिपाही, मिनिस्टर या और जो भी - तो मैंने जो वह काम किया या कर्त्तव्य किया - वह पूरे मन से किया या नहीं. अगर जवाब 'हाँ' में मिलता है तो वो अपनी नज़र से गिरता नहीं है."

"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है - 'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह. वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो...' इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."

जी - दरअसल बात इस नज़्म की ख़ासियत की... ?

"ख़ासियत - यही की यह जो हमारा दौर है, उसमे इश्क़ करना भूल गये हैं हम. फ़ारसी का एक शेर है - बड़ा मशहूर है. पूरा याद नहीं - पर ये है की दमिश्क में जब क़हर पड़ा तो लोग इश्क़ करना भूल गये. हम लोग जिस ज़माने में ज़िन्दा हैं इसमें लोग इश्क़ करना भूल गये हैं. मुहब्बत जो है, वो भी एक कारोबार बन गई है. अपना एक शेर याद आ रहा है - 'पहले था -' शेर से पहले लम्बी-गहरी साँस की उस आवाज़ ने कह दिया कि मैं अन्दर कहीं बहुत गहरे से आ रही हूँ - "पहले था जो भी आज मगर कारोबार-ए-इश्क़ / दुनिया के कारोबार से मिलता हुआ सा है"

लेकिन यह इश्क़ या काम का फ़लसफ़ा - और "फ़ैज़" या उनकी वह विचारधारा ?

"दरअसल 'फ़ैज़' का जो नज़रिया था - मर्क्सिज़म का - उन्होंने उसको वो दर्जा दे रखा था जो ज़िन्दगी में माशूक को हासिल होता है. बड़ा मशहूर शेर है उनका - आपने ज़रूर सुना होगा - 'गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहे लगा दो डर कैसा. गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं.' बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल है यह 'फ़ैज़' की. गदगद कंठ. पलक बन्द. बिलकुल जैसे कोई गीतकार अपने में खोया हुआ - डूबा-सा अपना कोई बहुत प्रिय गीत अपने किसी अज़ीज़-करीबी को सुना रहा हो - 'कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं. सद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र कि कोई रात नहीं.' पलकों के खुलते ही कलाइयों और उँगलियों ने चलना-घूमना शुरू कर दिया है. किसी काव्यांश कि व्याख्या करते अध्यापक की तरह तफ़सील से बताया जा रहा है - "अब दूरी कैसी ! हर वक़्त तेरी याद. जब हर वक़्त तेरा हाथ मेरे हाथ में रहता है तो..."

इन हिस्सों को आज आपसे सुन रहा हूँ तो कई तरह से अलग-सा असर हो रहा है 'फ़ैज़' के अंदाज़ और उनके एक-एक शब्द का...

"यही तो है ! 'फ़ैज़' बड़े शायरों की तरह उन शायरों में हैं जो अपने इस्तेमाल किये हुए लफ़्जों पर ऐसी मोहर लगाते हैं कि वो लफ़्ज़ सिर्फ़ उनसे मख़सूस हो जाते हैं. जैसे पेटेंट करा देते हैं न ! ट्रेडमार्क बन जाते हैं न जैसे. तो ग़ालिब के बाद मुख्तलिफ़ राइटर्स ने बड़ी तादाद में अपनी कहानियों के टाइटिल्स, किताबों के नाम उनके बनाए हुए मुक्केबाज़ - हाँ, जुड़-मिलकर बने शब्दों - जी, शायद यही जिन्हें आप सामासिक शब्द कह रहे हैं - तो मुक्केबाज़ पर रखे हैं. जी, जैसे क़ाज़ी अब्दुल सत्तार का उपन्यास है न - शब गज़ीदा. और हाँ - 'सफ़ीन-ए-ग़म-ए-दिल' है जैसे कुर्तुलुन का. उन्हीं का 'आख़िर शब के हमसफ़र' है. आप जानते हैं कि यह जो लफ़्ज़ है सहर - वैसे तो सुबह के अर्थ में आता है - पर तरक्कीपसंदों - ख़ासतौर से 'फ़ैज़' के इस्तेमाल से यह किसी चीज़ के पॉज़ीटिव रिज़ल्ट के अर्थ में प्रचलित हुआ और वैसे ही रात निगेटिव के. इससे पहले सहर या रात सिर्फ़ टाइम को ज़ाहिर करते थे."

आपकी तो मुलाक़ातें भी हुई हैं 'फ़ैज़' से ?

"हाँ, हाँ, मेरी उनसे बाराहा मुलाक़ात हुई. बहुत ही निजी तरह की महफिलें. उन मुलाक़ातों में कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान कि समस्याओं या रिश्तों वगैरह पर बातें नहीं हुआ करती थीं. वो यहाँ या वहाँ के मिसायलों के बारे में कभी गुफ़्तगू नहीं किया करते थे. वे कहते थे कि हम तो भाई मुहब्बत के सफ़ीर हैं और इसके अलावा कुछ सोचते नहीं. उनकी पूरी शायरी में भी कोई ऐसी फीलिंग नहीं है जिसमें नफ़रत, जंग कि हिमायत, दूरी फैलाने या फ़ासला पैदा करने वाला कुछ हो. ऐसा कुछ दूर दूर तक वहाँ नहीं है. बांग्लादेश बनने पर उन्होंने जो नज़्म लिखी थी, उसमें भी बहुत उदासी थी. सोचते थे कि जो हुआ बहुत तकलीफ़देह हुआ. वो सब नहीं होना चाहिये था. पर जो हुआ - उनकी नज़र में उसके कॉज़िज़ मौजूद थे. एक आम पाकिस्तानी नेशनलिस्ट कि हैसियत से वो दुखी थे. मसलन वो लाइन है उनकी - 'खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.' 'फ़ैज़' यहाँ के कई शायरों को पढ़ते, पसंद करते और मान देते थे. आम पाकिस्तानियों के बरक्स उन्होंने मख़दूम, जज़्बी, जाफ़री और मजाज़ को शुरू की अपनी एक किताब डेडीकेट की थी. डेडीकेट करते समय इन चार शायरों में से दो को दस्त-ओ-बाजू और दो को उन्होंने क़ल्ब-ओ-जिग़र लिखा था."

यह भी तो है कि उनके लेखन में कई बार सन सैंतालीस में मिली उस आज़ादी को लेकर नाख़ुशी और असंतोष का इज़हार हुआ है. जैसा वो जो उनकी नज़्म है - "ये दाग़-दाग़ उजाला...! "

बाएँ हाथ ने बढ़कर 'फ़ैज़' के उस संग्रह को हाथ में थाम लिया है. पृष्ठों के उलटने-पलटने के साथ-साथ जोशीले लहज़े में कहना शुरू हुआ है - "जी - उए पार्टीशन पर लिखी थी, बहुत मशहूर हुई." सुनाना शुरू हो चुका है. साथ ही किताब में उसकी तलाश भी जारी है -


ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-ग़म-ए-दिल

नज़्म तलाश ली गई. गुनगुनाते-से उसे फिर से पढ़ा जा रहा है अपनी एक ख़ास धुन में - आखिरी लाइनें हैं -

अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निज़ात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

नज़्म ख़त्म हुई तो उनका जो हाथ किताब को मेज़ से उठाकर लाया था, जल्दी से उसे वहीं वापस पहुँचाने के लिये चल दिया. आख़िरी पंक्ति दो-तीन बार बाआवाज़ पढ़ी गई है. कहीं दूर देखते-सोचते से कह रहे हैं - हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सब इस बात पर ख़ुश थे कि चलो अंग्रेज़ों से छुटकारा मिला - मगर 'फ़ैज़' दुखी थे कि ये आज़ादी उनके ख़्वाबों की आज़ादी नहीं थी. पार्टीशन में इंसानियत का जैसे खून हुआ - जैसे वो बंटवारा हुआ - उसने बहुत तकलीफ़ पहुँचाई थी उन्हें. वे पाकिस्तान में रहते थे - तो ज़ाहिर है कि उस हक़ीक़त को कुबूल कर लिया था - पर अन्दर से ख़ुश नहीं थे."

आँखें बन्द कर के याद करने कि कोशिश कि है कुछ देर. याद आने में मुश्किल दिखी तो किताब फिर हाथ में आ गई - "हाँ, ये है वो मुक्तक - 'दीद-ए-दर पे वहाँ कौन नज़र करता है/ कासा-ए-चश्म में खूनाबे जिग़र ले के चलो/ अब अगर आओ पर अर्ज़ो तलब उनके हुज़ूर/ दस्त-ओ-कशकोल नहीं कासा-ए-सर ले के चलो' आज 'फ़ैज़' पर सौ साला जश्न पूरी दुनिया में हो रहा है उसमें हिन्दुस्तान भी पीछे नहीं है. साहित्य अकादमी और बहुत-से इदारे और अन्जुमनें बड़े पैमाने पर उनका प्रोग्राम कर रहे हैं. ख़ुद यहाँ अलीगढ़ में - यूनिवर्सिटी में जनवरी में एक बड़ा जलसा हो रहा है जिसमे हिन्दुस्तान से बाहर के बहुत लोग आने वाले हैं - और 'फ़ैज़' कि बेटी सलीमा भी आ रही हैं उसमें."

उनकी अभिव्यक्ति कि रग-रग में से, रेशे-रेशे में से नया अनोखा सा एक आदर भाव झलक रहा था. आदर का ऐसा भाव जो अपने पूर्वजों-वंशजों की श्रेष्ठताओं-ऊँचाइयों को याद करते समय हमें अनायास-अप्रयास श्रद्धा से भर जाता है - गर्वित - आलोकित कर जाता है. मेरे सामने अभी हाल ही में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ एक शायर था - और 'फ़ैज़' की शायरी के बारे में उसके अनुभव और राय से परिचित कराने वाली वो सहज, बेबाक प्रतिक्रियाएं थीं. तब वह शायर अपनी शायरी की खासियतें बताने-गिनाने कि धुन या ज़िद में नहीं था. लग ही नहीं रहा था कि उस शायर को अपने ख़ुद के शायर होने का कोई बोध उन क्षणों में 'फ़ैज़' कि शायरी के मूल्यांकन में ज़रा-सी बाधा पहुँचा रहा है या कोई मुश्किल खड़ी कर रहा है. जैसे तब शहरयार साहब केवल एक सहृदय भर थे, सुबुद्ध एक पाठक या श्रोता भर थे, बहुज्ञ एक बुद्धिजीवी मात्र थे या फिर साहित्य कि दुनिया में खूब पैरे-तैरे, डूबे-उतराए एक तठस्थ-ईमानदार समीक्षक हो चले थे. शब्द-शब्द बता रहा था कि मैं बहुत अन्दर से आ रहा हूँ और जो कह रहा हूँ मन से - पूरे मन से कह रहा हूँ. जी किया कि 'फ़ैज़' की शायरी की बड़ाई-ऊंचाई-गहराई को शहरयार साहब के दिल और आँखों से भापूँ-देखूँ - "क्या कुछ होता है वह जिसके होते कोई शायर या उसकी शायरी - हाँ, 'फ़ैज़' और उनकी शायरी भी - बड़ी हो जाती है - बड़ी मान ली जाती है ?"

दो-चार पल भी तो नहीं गुज़रे थे कि सुनाई पड़ा - "मेरा एक तसव्वुर है कि वो शायर या राइटर अहम और बड़ा है जिसको बार-बार पढ़ने को जी चाहे. हर बार जब आप पढ़ें तो वो बिलकुल नया मालूम हो और ऐसा लगे कि पहले जब हम इस अदीब के पास आये थे तो हम उसकी बहुत-सी खूबियों, बहुत-से पहलुओं को देख नहीं पाए थे - और एक नई ख़ुशी और हैरत ले कर वापस लौटें. ये सिलसिला बराबर चलता रहे और हर विज़िट में हमें यही अनुभव हो. इस ऐतबार से आप 'फ़ैज़' की शायरी को देखिये. 'फ़ैज़' कि शायरी में मुझे ग़ालिब जैसी बड़ाई नज़र आती है."

ग़ालिब जैसी... ?

"जी - ग़ालिब जैसी. यूँ और भी ऐसे बड़े शायर हैं जिनकी तरफ़ हम बार-बार जाते हैं, लेकिन बाज़ बाहरी चीज़ों कि वजह से हमारे अन्दर उनके सिलसिले में एक ख़ास ज़ेहन बन जाता है. आमतौर से हम उन्हीं चीज़ों को उनके यहाँ ढूंढने जाते हैं और वही चीज़ें हमें मिलती हैं बार-बार. उनका रौब तो हम पर पड़ता है और रिस्पेक्ट में हमारे सर झुक जाते हैं - लेकिन ख़ुशी और हैरत नहीं मिलती हमें. इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल उर्दू में इक़बाल हैं - जिनके बड़े होने में कोई शुबह नहीं - लेकिन वो हमें उस तरह ख़ुश और हैरान नहीं करते जिस तरह ग़ालिब और 'फ़ैज़' हमें करते हैं. आपने पूछा है न - तो 'फ़ैज़ और ग़ालिब - दोनों कि एक ख़ूबी ये भी है कि इनके स्टाइल और रंग पर इनकी इतनी गहरी छाप है कि अगर उनके रंग में कोई लिखने की कोशिश करे तो फ़ौरन पकड़ा जाता है - और दूर से मालूम हो जाता है कि ये फ़ैज़ का या ये ग़ालिब का शेर है. इसको यूँ भी कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने स्टाइल को बिलकुल इग्ज़ॉस्ट कर दिया है. उससे कोई दूसरा कुछ नहीं ले सकता है. उस ज़मीन में जितनी फसल पैदा हो सकती थी, उन्होंने उगा ली - काट ली. उनके स्टाइल का जादू इतना चला कि उनके कई कन्टेम्परेरीज़ - हम उम्र या साथ के जो लोग थे - उन्होंने उनकी तरह की चीज़ें लिखने की कोशिश कीं. - जी - मसलन सरदार जाफ़री... "

'फ़ैज़' की प्रसिद्धि के पीछे जितनी जैसी भी हो क्या एक वजह उनकी शायरी में उपस्थित राजनीति के हिज्जे-हिस्से भी हैं ?

"जहाँ तक मक़बूलियत का सवाल है - तो वो ख़ास-ओ-आम में जितने मकबूल हैं, उसकी वजह ये भी है कि वो जेल गये और मार्किस्ट रहे. उनका जेल जाना या लम्बे अरसे तक जेल में रहना और मार्किस्ट होना उनके लिये बहुत फायदेमंद रहा. और जहाँ तक सियासी एलिमेंट कि बात है तो वो उनके यहाँ बहुत रूमानी और इश्क़िया अंदाज़ में आया. कई जगह तो उनका इंक़लाब गोश्त और पोस्त का इन्सान मालूम होता है." बोलना रुका तो देखा कि किताब हाथ में आ चुकी है और उलट-पुलट शुरू हो चुकी है - मसलन ये शेर देखिये -


कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शुनवाई, ऐ दीद-ए-तर होगी

इस जल्दी और चाहत के साथ निकला यह वाक्य कि जैसे कोई शायर अपनी एकदम ताज़ा लिखी रचनाओं में से अधिकाधिक को अपने पास आये अपने किसी साथी-करीबी को सुना देना चाह रहा हो -


आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक़ गरेबाँ वालों
सिल गये होंठ, कोई ज़ख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है
खिल गये ज़ख्म, कोई फूल या न खिले

या उनका ये शेर देखिये -


तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये

न रहा जुनूँ-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हेँ जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गये

पता नहीं, अब वो सुनाने के लिये पढ़ रहे हैं या पढ़ने के लिये सुना रहे हैं. पर जो भी चल रहा है, वह बदस्तूर जारी है - "इन शेरों से साफ़ पता चलता है कि इंक़लाब उनके लिये एक रूमान था." उंगलियाँ रुकीं तो सफात कि उलट-पुलट थमी. निगाह के उस पन्ने पर टिकते ही आवाज़ में फड़कती-चहकती-सी एक ख़ुशी सुनाई दी - "अच्छा- आख़िर में उनकी एक नज़्म... "मैंने दोबारा ध्यान से देर तक देखा - शहरयार साहब के हाथों में अपनी कोई डायरी या अपना कोई संकलन नहीं था. वही किताब थी जिसे बीच-बीच में कई बार 'फ़ैज़' की बताया गया था. तो दूसरे किसी कवि कि कविता को सुनाने की शहरयार साहब की ऐसी यह आतुरी, उत्सुकता, उमंग और छटपटाती-सी चाहत और जो भी हो पर यह ज़रूर है कि वह नज़्म ऐसी-वैसी कोई साधारण-कमज़ोर नज़्म तो नहीं ही होगी, जिसने शहरयार साहब को इतनी मज़बूती से अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ है.... ! जी - नज़्म यूँ शुरू होती है -


तुम्हीं कहो क्या करना है
जब दुःख की नदिया में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कस-बल बाहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूँ लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरम्पार लगी
ऐसा ना हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ माँझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
नदिया तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कैसे पार उतरना है

जब नज़्म को सुनाना शुरू किया था तो मन एकदम अनमना-सा था. बस, ऐसा-सा कि शहरयार साहब के उस मन को रखना था - उनके उस भाव कि इज्ज़त करनी थी. पर यहाँ तक आते-आते लगा कि कविता के सम्मोहन ने मुझे अपने घेरे-फंदे में खींच-जकड़ लिया है. शहरयार साहब से ऐसा कुछ पूछने का भी मन हुआ कि क्या इस नज़्म को इतनी इस दिलीचाहत, ख़ुशी और हैरानी के साथ आपसे सुनने का सौभाग्य किसी और को भी मिला है - पर नहीं - इस कारण अगर एक भी शब्द अनसुना रह गया तो मिल रहे इस आनंद में ख़लल भी तो पड़ सकता है न ! इस नज़्म से अपने प्रथम परिचय के उन अनमोल क्षणों में मैं ख़ुद को हैरान करती-सी उस ख़ुशी से लेशमात्र भी वंचित नहीं होने देना चाह रहा था. वो थे कि नज़्म में बेजिस्म सर-ओ-पा बहुत गहरे उतरे-रुके से बोले जा रहे थे -


अब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विश्वास बहुत
और याद बहुत से नुस्ख़े थे
यूँ लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा ना हुआ के रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है

कुछ तो हुआ ही था कि मैं कुछ ऐसे वाह-वाह कर उठा था जैसे मुझे शहरयार साहब नहीं ख़ुद 'फ़ैज़' ही अपनी नज़्म सुना रहे हों ! इस ख़्याल के आते ही याद आया कि हाँ - बहुत लोग कहते हैं कि शहरयार भी तो 'फ़ैज़' कि तरह ही पढ़ते हैं. शहरयार कई बार बता चुके हैं कि 'फ़ैज़' अपनी ग़ज़लें और अपनी नज़्में अच्छी तरह नहीं पढ़ पाते थे. तो - इसका मतलब - ! मेरी आँखों में से झाँकते चकित-से उस आह्लाद को शहरयार की निगाहों में शायद भांप-जान लिया है - "नहीं - इस तरह की नज़्में उनके पास बहुत कम हैं उनके डिक्शन पर सजावट और आराइश का बहुत असर है. इसलिए फ़ारसी, आमेज़ ज़बान उनकी नज़्मों में बहुत नज़र आती है. अलबत्ता ग़ज़लें निस्बतन सहज ज़बान में हैं और वो सहज इसलिए भी लगने लगी हैं कि बहुत गायी गई हैं. बार-बार सुनने से कान उससे मानूस हो गये हैं. तो वो बहुत आसान लगने लगी हैं..."

यह बिना वजह तो नहीं ही होगा कि इस समय मुझे नज़ीर याद आ रहे हैं ! आपको कुछ ऐसा लगता है कि नज़ीर और 'फ़ैज़'... ?

"नहीं 'फ़ैज़' से नज़ीर कि तुलना तो ठीक नहीं है. जहाँ तक नज़ीर का सवाल है उन्होंने बहुत आवामी ज़बान इस्तेमाल की. इसलिए कि जो उनका कंटेंट था वो भी आम आदमी कि प्रॉब्लम्स से - ज़िन्दगी से लिया गया था. और उर्दू का जो आम स्टाइल था, उससे वो बहुत अलग था. इसलिए बहुत दिनों तक उर्दू वालों ने उन्हें शायरी में वो ख़ास दर्जा नहीं दिया जो उनको बीसवीं सदी में मिला. ख़ासतौर से तब जब प्रोग्रेसिव मूवमेंट का दौर चला. जब आम आदमी को अदब में जगह मिली तो नज़ीर को भी अदब में जगह मिल गई. जबकि बहुत से लोग उनको बड़े शायरों में शुमार नहीं करते. जी - 'फ़ैज़' से कँपेरिज़न इसलिए ठीक नहीं कि 'फ़ैज़' उर्दू की आम ट्रेडिशन से जुड़े हैं. उससे - वो जो आम चलन था - वो जो सॉफ्स्टिकेटेड लैंग्वेज होती है जिसमे तसन्नो-तकल्लुफ और सजावट का एलिमेंट ज़्यादा है.

यहाँ यह एक और बात हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर - जिनकी मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी - उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं - उनकी ज़बान एक ख़ास तरह की बोलचाल कि ज़बान से थोड़ी दूर ही रहती है. जी - जैसे एक्वायर्ड लैंग्वेज होती है ना ! 'फ़ैज़' की मादरी ज़बान पंजाबी थी. पंजाबी में - ज़्यादा नहीं - मगर उन्होंने शायरी भी की है."

ऐसे और भी तो शायर हैं कई ?

"हाँ - राशिद हैं ! यासिर काज़मी, इब्ने इंशा - बहुत लोग हैं. कृष्ण चंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमे किसी की मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी. इसलिए इनकी ज़बान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज़्यादा मेहनत की और ज़्यादा पढ़ा. इसलिए इनके यहाँ निस्बतन औरों के मुकाबले डेप्थ ज़्यादा है. जी - मजाज़, सरदार जाफ़री, जाँ निसार अख्तर आदि के मुकाबले में आप ये देख सकते हैं."

देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?

"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."

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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक

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